काफल जो उत्तरांचल और हिमाचल (Mandi, Kullu, Shimla, Chmba) के जंगलों में गर्मी के सीजन में बहुत होते है... आईये जानते है इसके कुछ फायदे........|
इसकी छाल में मायरीसीटीन,माय्रीसीट्रिन एवं ग्लायकोसाईड पाया जाता है। मेघालय में इसे "सोह-फी " के नाम से जाना जाता है और आदिवासी लोग पारंपरिक चिकित्सा में इसका प्रयोग वर्षों से करते आ रहे हैं। विभिन्न शोध इसके फलों में एंटी-आक्सीडेंट गुणों के होने की पुष्टी करते हैं, जिनसे शरीर में आक्सीडेटिव तनाव कम होता और दिल सहित कैंसर एवं स्ट्रोक के होने की संभावना कम हो जाती है। इसके फलों में पाए जाने वाले फायटोकेमिकल पोलीफेनोल सूजन कम करने सहित जीवाणु एवं विषाणुरोधी प्रभाव के लिए जाने जाते हैं।
"काफल" को भूख की अचूक दवा माना जाता है। मधुमेह के रोगियों के लिए भी इसका सेवन काफी लाभदायक है। इस फल के बारे में अनेक लोककथाएं भी प्रचलित रही हैं और लोकोक्तियाँ भी जैसे :'काफल पाको, मैल नि चाखो' आइए इसके पीछे की एक लोकोक्ति के बारे में हम आपको बताते हैं- कहा जाता है कि एक छोटी सी पहाडी पर एक घना जंगल था, उस पहाडी के पास गांव में एक औरत अपने बेटे के साथ रहती थी, महिला काफी गरीब थी, इसलिए उसे कई दिन बिना भोजन के ही बिताने पड़ते थे।
अक्सर महिला और उसका बेटा जंगली फल खाकर ही अपना जीवन बिताते थे ,महिला काफी मेहनत करती, एक दिन की बात है, वो जंगल से रसीले "काफल"
के फल तोड़कर लाई,उसने "काफलों" से भरी टोकरी अपने बेटे को सौंप दी, और बेटे से कहा कि वो "काफल" की हिफाजत करे और खुद खेतों में काम करने के लिए वापस चली गई। रसभरे "काफल" देखकर बच्चे का मन "काफल"खाने को ललचाया, लेकिन अपनी मां की बात सुनकर उसने "काफल" का एक भी दाना नहीं खाया।
शाम को महिला खेतों से जब काम कर वापस घर लौटी तो देखा कि "काफल" धूप में पड़े-पड़े थोड़ा सूख गए थे,जिससे उनकी मात्रा कम लग रही थी। यह देख कर उसका पारा सातवें आसमान पर आ गया, उसको लगा कि बच्चे ने टोकरी में से कुछ "काफल" खा लिए हैं। उसने गुस्से में एक बडा पत्थर बेटे की तरफ फेंका, जो गलती से बच्चे के सिर पर जा लगा और बच्चे की वहीँ मौत हो गई।
"काफल" के सूखे हुए फल बाहर ही पड़े रहे, महिला फिर दूसरे दिन जंगल गई और शाम को वापस लौटी, उसने देखा "काफल" बारिश में भीग कर फूल गए थे, और टोकरी फिर से वैसे ही भर गई थी, उसे तुरंत ही अपनी गलती का अहसास हुआ, और वह अपनी नासमझी पर बड़ा अफसोस होने लगा, लेकिन अब कुछ नहीं हो सकता था।
उसने अपनी नासमझी में अपना बेटा खो दिया था। ऐसा कहा जाता है कि वह बच्चा आज भी 'घुघुती' पक्षी बन कर अमर है, ये घुघुती पक्षी आज भी झुंडों में घुमते हैं और आवाज़ लगाते हैं।'काफल पाको, मैल नि चाखो' ..इस लोककथा से भी इस फल के महत्व को जाना जा सकता है।हाल के वर्षो में अन्य औषधीय वनस्पतियों की तरह अत्यधिक दोहन और पर्यावरणीय कारणों से "काफल" के पेड़ों की संख्या भी उत्तरोत्तर घटती रही।
यूं तो गर्मियों के मौसम को हमने चिलचिलाती धूप,पसीने ,उमस के लिए जाना है, लेकिन ईश्वर ने हमें इनसे बचने के लिए आम,बेल ,तरबूज एवं खरबूज जैसे विभिन्न फल भी दिए हैं। ठीक इसी प्रकार हिमालयी क्षेत्र में भी "काफल" नाम से जाना जाने वाला एक फल अनायास ही अपनी ओर हमारा ध्यान खींचता है। काफल के पेड़ काफी बड़े होते हैं,ये पेड़ ठण्डी छायादार जगहों में होते हैं। हिमांचल से लेकर गढ़वाल, कुमाऊं व नेपाल में इसके वृक्ष बहुतायत से पाए जाते हैं।
इसका छोटा गुठली युक्त बेरी जैसा फल गुच्छों में आता है,जब यह कच्चा रहता है तो हरा दिखता है और पकने पर इसमें थोड़ी लालिमा आ जाती है। इसका खट्टा-मीठा स्वाद बहुत मनभावन और उदर-विकारों में बहुत लाभकारी होता है। पर्वतीय क्षेत्रों में मजबूत अर्थतंत्र दे सकने की क्षमता रखने वाला "काफल" नाम से जाना जाता है, यह पेड़ अनेक प्राकृतिक औषधीय गुणों से भरपूर है।
दातून बनाने से लेकर, अन्य चिकित्सकीय कार्यां में इसकी छाल का उपयोग सदियों से होता रहा है। इसके अतिरिक्त इसके तेल व चूर्ण को भी अनेक औषधियों के रूप में उपयोग किया जाता रहा है। आयुर्वेद में इसके अनेक चिकित्सकीय उपयोग बनाए गए हैं। बहुधा यह पेड़ अपने प्राकृतिक ढंग से ही उगता आया है। माना जाता है कि चिड़ियों व अन्य पशु-पक्षियों के आवागमन व बीजों के संचरण से ही इसके पौधें तैयार होते हैं और सुरक्षित होने पर एक बड़े वृक्ष का रूप लेते हैं। आयुर्वेद में इसे "कायफल" के नाम से जाना जाता है।
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